भविष्य चन्द्रिका

ऐसा कौन है, जो सर्वसुख नहीं चाहता…लेकिन पूर्वकृत कर्मों के कारण जो ग्रहदोष हुआ, उससे कैसे बचता…जब रोग की चिकित्सा है तो ग्रहों की भी निश्‍चित ही है..या कहिए कि चिकित्सा तो ग्रहों की ही होती है…शास्‍त्र ऐसा कहते हैं…लेकिन जब ग्रहों के दोष ही पता न हों तो उनका उपाय कैसे हो…इसलिए सर्वप्रथम अपनी विस्तृत जन्मपत्रिका भविष्यचंद्रिका बनवाइए…भविष्यचं‌द्रिका में आपके संपूर्ण जीवन का लेखा जोखा है और ग्रहों की गतिचक्र के अनुसार आपकी समस्याओं के समाधान भी…..
भविष्य चंद्रिका ज्योतिष एवं तंत्र अनुसंधान ट्रस्ट में अनेक महान विद्वान अपना योगदान देते हैं, जो लोक कल्याण के भाव से कार्य संपादित करते हैं। आपकी की कोई भी समस्या हो, जिसका ज्योतिषीय अथवा तंत्र विज्ञान सम्मत समाधान चाहते हों तो आज ही अपना पंजीकरण कराइए और श्रद्धेय गुरुदेव से अपनी जन्मपत्रिका, सुरक्षा कवच और समस्याओं के उपाय एक वर्ष के लिए बिल्कुल मुफ्त पाइए।
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दिव्य दिव्यात्मा

संस्कृत और हिंदी में दिव्य से अर्थ अलौकिक के होते हैं, यह दैवीय शक्तियों के लिए आध्यात्मिक रूप से लिये जाने वाला विशेषण है। जो अति सुंदर हो, भव्य हो, वह दिव्य है। दिव्य मूर्ति भगवान श्री राम हैं, श्री कृष्ण हैं, यह एक ईश्वरीय शक्ति के लिए प्रयोग किये जाने वाला शब्द है। शास्त्रों में दिव्यशक्ति युक्त विशाल मस्तिष्क वाले देव को कहा गया है। जो अति शक्तिशाली हो, जो अनंत को जानने की क्षमता रखता हो, जो आकर्षक हो, जो प्रकाश का पुंज हो। अंग्रेजी में दिव्य को Divine कहा गया अर्थात स्वर्गिक (Heavenly) हो। यह देवों की दृष्टि है, जिसे दिव्य दृष्टि कहा गया।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण का विराट स्वरूप दिवि शब्द प्रयोग से ही दिखाया है।
दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः।।
अर्थात
आकाश में हज़ारों सूर्यों के एकसाथ उदित होने पर जो प्रकाश उत्पन्न होता हो, वह भी उस विराट दिव्य विश्वात्मा के प्रकाश के सामने गौण ही है।
दिव्य का यही अर्थ है और दिव्यांग का अर्थ – दैवीय गुणों से ओतप्रोत। किसी विशेष अंग स्त्री अथवा पुरुष के ज्ञानेन्द्रिय विशेष अर्थात मुखमंडल के लिए उपयुक्त है। अतः दिव्यांग वह ईश्वर ही है। शरीर से अंग विहीन को दिव्यांग कहना उस अपाहिज को चिढ़ाने जैसा है। वह किसी भी दृष्टि से दिव्यांग नहीं है।
इसलिए सरकार से निवेदन है कि अर्थ का अनर्थ न करें। विकलांग को विकलांग ही रहने दें। यदि उनका वास्तविक नाम है। उन्हें दिव्यांग संबोधन उचित नहीं। ©@चंद्रशेखर शास्त्री

गुरुदीक्षा और श्रीविद्या अनुष्ठान

आज के युग में धनहीनता और कार्य न होना सबसे बड़ा अभिशाप है।
अनेक बार देखा गया है कि व्यक्ति गुणसम्पन्न है, लेकिन फिर भी काम नहीं चल रहा है। किसी की कुदृष्टि से या ईर्ष्या के कारण अथवा शत्रुतावश जीवन में अनहोनी घटनाएं घटने लगती हैं। जीवन नरक हो जाता है। एक काम ठीक करो, दूसरा बिगड़ने लगता है और दूसरा ठीक करो तो पहला बिगड़ जाता है। कोई रास्ता नहीं दिखाई देता है। डॉक्टरों की फीस बढ़ने लगती है और फिर भी ठीक नहीं हो पाते हैं।
ऐसे में गुरुओं का आशीष काम आता है, जब गुरुदीक्षा के साथ साथ गुरु कष्टहरण के लिए प्राचीन काल में ऋषियों और देवताओं के संवाद से उत्पन्न तथा भगवान शिव और माँ पार्वती के संवाद से उत्पन्न आगम निगम जनित तंत्र विज्ञान के विशेष अतिगुप्त रहस्यों से परिपूर्ण विद्या का प्रयोग कर शिष्य के संकट हरता है।
महालक्ष्मी अनुष्ठान से दुःख दरिद्रता का नाश होता है…
श्रीविद्या के अद्भुत चमत्कारिक शोधों से भारतीय ऋषियों की विशेष पद्धति के द्वारा सम्पन्न होने वाले इस अनुष्ठान के साक्षी बनें और जीवन सफल करें।
गुरुदीक्षा और श्रीविद्या के इस अनूठे अनुष्ठान में
विशेष मुहूर्त में अतिगुप्त तंत्रोक्त विधान से होने वाले इस अनुष्ठान में अपना आसन सुरक्षित करें और सभी बाधाओं से मुक्ति पाने का मार्ग पाएं…स्थान
पीताम्बराविद्यापीठसीकरीतीर्
22जनवरी2018
सम्पर्क : 7055851111

गुप्तनवरात्र

काल की अपनी एक शाश्वत गति है। वह ही पल विपल का निर्णय करता है। जिसे हम कर्म का विधान मानते हैं। कर्म की गति निश्चय फल आप्नुत करती है। इसलिए हमारे ऋषियों ने सन्मार्ग दिखते हुए कर्म की गति के शोधन का उपाय समय समय पर शिष्यों को श्रोतव्य में उपहार दिया है। काल 4 संधियों पर निर्भर है, इसी से वह चतुर्युगी निर्धारण करता है और इसी से रैत्विक परिवर्तन को स्थापित करता है। षड्ऋतु के चक्र को भी वह इसी संधिकाल की व्यस्था से सुनियोजित करता है। इस निर्धारण के लिए उसने अहोरात्र को 4 खंडों में व्यवस्थित किया है। प्रत्येक दिन रात में 4 संधियों का निर्माण किया। क्योंकि पहले सब अंधकार था, उसलिए प्रथम संधि मध्य रात्रि हुई। सूर्योदय, मध्यान्ह और सायं सूर्यास्त- ये 3 संधियां पश्चात आईं। इन चार संधियों में ऊर्जा का प्रवाह अपने चरम पर होता है, यदि उस सत्ता से कुछ प्राप्त करना चाहते हैं तो ये चार संधियां महत्वपूर्ण हैं। इन चारों संधियों को ऋषियों ने नवरात्र कहा है। जिनमें 2 नवरात्र गुप्त और 2 सामान्य हैं। नवरात्र से हमें ऊर्जा प्राप्त करने के लिए गुरुमंत्र का सहाय लेना चाहिए और उस ऊर्जा के लिए अधिकतम समय का सदुपयोग करना चाहिए।
सूर्योदय से पूर्व जप पूर्ण करने चाहिये। गुरु का सानिध्य हो तो शीघ फलवती साधना सम्पन्न होती है।
एक समय सात्विक आहार लें और फलाहार गौदुग्ध आदि का आश्रय लेकर जप करें। यह समय कर्म की गहन गति का निस्तारक है।

तकनीकी को प्रकृति का मित्र बनाओ

सूर्य बिना किसी भेदभाव के समस्त पर अपना प्रकाश लुटाता है…..क्या उसका कभी अहसास किया….! वायु श्वास की गति निरंतर रखती है, क्या मरुद्गण हो कभी धन्यवाद किया !
यह पृथ्वी निरन्तर हमारा भार सहती हुई हमारे मल मूत्र, उच्छिष्ट वहन करती है, क्या इसका ऋण उतार पाओगे !
आकाश हमें सदैव विस्तार की प्रेरणा देता है, क्या उस जैसा बन पाओगे! और जल….जल की एक बूंद एक जीवन को जन्म देती है। अग्निपुंज की ज्वाला भी जल रूप में परिवर्तित होकर हमें जन्म देती है और जीवन के विकास के लिए शरीर को जलपूर्ण रखती है, उसकी कमी न हो, उसके लिए प्राकृतिक साधन उपलब्ध कराती है….इन्हीं पंचतत्वों के संयोजन पर यह शरीर पूर्णता को प्राप्त होता है….. लेकिन मानव ने सभी तत्वों का दोहन कर उन्हें दूषित बना दिया है….इसका दंड तुम्हारी आने वाली पीढ़ियों को भोगना पड़ेगा…उन्हें न शुद्ध वायु तुमने छोड़ी है, न शुद्ध जल छोड़ा है, न आकाशमंडल ही शांत और शुद्ध छोड़ा है और पृथ्वी तुम्हारे कलंकित बोझ से बोझिल है।….केवल एक सूर्य है, जो तुम्हें प्रकाशित तो कर रहा है, लेकिन शेष 4 तत्व दूषित हो जाने के कारण उसका प्रकाश भी दूषित तत्वों के संपर्क में आकर विषाक्त प्रभाव देने लगा है….
अब तो चेत जाओ…
बहुत कुछ खो चुके हो…
जो शेष है, उसे विशेष बनाने का अंतिम अवसर है….
जो पंचतत्वों को दूषित करने के कारक हैं, उनका त्याग कर दो…
मशीनीकरण के दुष्प्रभावों को समझो….
मशीनें तुम्हारी सहायक हों…मैं यह नहीं कहता कि तुम फिर पैदल हो जाओ…मैं कहता हूं कि तुम तकनीकी को प्रकृति का मित्र बनाओ….
यही तुम्हारे कर्णधारों का भविष्य सुनिश्चित करेगा…..
©चंद्र शेखर शास्त्री

हनुमान चालीसा का अदभुत रहस्य !

भगवान को अगर किसी युग में आसानी से प्राप्त किया जा सकता है तो वह युग है कलियुग। इस कथन को सत्य करता एक दोहा रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने लिखा है
नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥
कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू॥

भावार्थ:-
कलियुग में न कर्म है, न भक्ति है और न ज्ञान ही है, राम नाम ही एक आधार है। कपट की खान कलियुग रूपी कालनेमि के (मारने के) लिए राम नाम ही बुद्धिमान और समर्थ श्री हनुमान्‌जी हैं॥
जिसका अर्थ है की कलयुग में मोक्ष प्राप्त करने का एक ही लक्ष्य है वो है भगवान का नाम लेना। तुलसीदास ने अपने पूरे जीवन में कोई भी ऐसी बात नहीं लिखी जो गलत हो। उन्होंने अध्यात्म जगत को बहुत सुन्दर रचनाएँ दी हैं।
ऐसा माना जाता है कि कलयुग में हनुमान जी सबसे जल्दी प्रसन्न हो जाने वाले भगवान हैं। उन्होंने हनुमान जी की स्तुति में कई रचनाएँ रची जिनमें हनुमान बाहुक, हनुमानाष्टक और हनुमान चालीसा प्रमुख हैं।
हनुमान चालीसा की रचना के पीछे एक बहुत जी रोचक कहानी है जिसकी जानकारी शायद ही किसी को हो। आइये जानते हैं हनुमान चालीसा की रचना की कहानी :-
ये बात उस समय की है जब भारत पर मुग़ल सम्राट अकबर का राज्य था। सुबह का समय था एक महिला ने पूजा से लौटते हुए तुलसीदास जी के पैर छुए। तुलसीदास जी ने नियमानुसार उसे सौभाग्यशाली होने का आशीर्वाद दिया।
आशीर्वाद मिलते ही वो महिला फूट-फूट कर रोने लगी और रोते हुए उसने बताया कि अभी-अभी उसके पति की मृत्यु हो गई है। इस बात का पता चलने पर भी तुलसीदास जी जरा भी विचलित न हुए और वे अपने आशीर्वाद को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त थे।
क्योंकि उन्हें इस बात का ज्ञान भली भाँति था कि भगवान राम बिगड़ी बात संभाल लेंगे और उनका आशीर्वाद खाली नहीं जाएगा। उन्होंने उस औरत सहित सभी को राम नाम का जाप करने को कहा। वहां उपस्थित सभी लोगों ने ऐसा ही किया और वह मरा हुआ व्यक्ति राम नाम के जाप आरंभ होते ही जीवित हो उठा।
यह बात पूरे राज्य में जंगल की आग की तरह फैल गयी। जब यह बात बादशाह अकबर के कानों तक पहुंची तो उसने अपने महल में तुलसीदास को बुलाया और भरी सभा में उनकी परीक्षा लेने के लिए कहा कि कोई चमत्कार दिखाएँ। ये सब सुन कर तुलसीदास जी ने अकबर से बिना डरे उसे बताया की वो कोई चमत्कारी बाबा नहीं हैं, सिर्फ श्री राम जी के भक्त हैं।
अकबर इतना सुनते ही क्रोध में आ गया और उसने उसी समय सिपाहियों से कह कर तुलसीदास जी को कारागार में डलवा दिया। तुलसीदास जी ने तनिक भी प्रतिक्रिया नहीं दी और राम का नाम जपते हुए कारागार में चले गए। उन्होंने कारागार में भी अपनी आस्था बनाए रखी और वहां रह कर ही हनुमान चालीसा की रचना की और लगातार 40 दिन तक उसका निरंतर पाठ किया।
चालीसवें दिन एक चमत्कार हुआ। हजारों बंदरों ने एक साथ अकबर के राज्य पर हमला बोल दिया। अचानक हुए इस हमले से सब अचंभित हो गए। अकबर एक सूझवान बादशाह था इसलिए इसका कारण समझते देर न लगी। उसे भक्ति की महिमा समझ में आ गई। उसने उसी क्षण तुलसीदास जी से क्षमा मांग कर कारागार से मुक्त किया और आदर सहित उन्हें विदा किया। इतना ही नहीं अकबर ने उस दिन के बाद तुलसीदास जी से जीवनभर मित्रता निभाई।
इस तरह तुलसीदास जी ने एक व्यक्ति को कठिनाई की घड़ी से निकलने के लिए हनुमान चालीसा के रूप में एक ऐसा रास्ता दिया है। जिस पर चल कर हम किसी भी मंजिल को प्राप्त कर सकते हैं।
इस तरह हमें भी भगवान में अपनी आस्था को बरक़रार रखना चाहिए। ये दुनिया एक उम्मीद पर टिकी है। अगर विश्वास ही न हो तो हम दुनिया का कोई भी काम नहीं कर सकते।
बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु॥
भावार्थ:-बिना विश्वास के भक्ति नहीं होती, भक्ति के बिना श्री रामजी पिघलते (ढरते) नहीं और श्री रामजी की कृपा के बिना जीव स्वप्न में भी शांति नहीं पाता॥
।। राम सिया राम सिया राम जय जय राम ।।

बुध केतु

सूकुंडली में कहीं भी बुध केतु एक साथ हों तो जातक गुप्त विद्याओं का ज्ञाता होता है, लेकिन वाणी दोष के कारण संसार को अपने विपरीत करने वाला होता है। जातक अर्बुद रोग से ग्रस्त भी हो सकता है। जातक पर शत्रु काली शक्तियों के प्रयोग सदैव करते रहेंगे और जब जातक का चंद्रमा शनि राहु से युति करेगा, वे प्रयोग असर करेंगे।
ऐसा जातक स्वयं योग्य होते हुए भी किसी न किसी कारण से पीड़ित रहता है।
बुध और केतु मिलकर कृत्रिम मंगल का फल भी प्रगट करते हैं, इस कारण जातक अपनी वाणी से शत्रु पैदा करता है। आदर्शवाद का प्रबल समर्थक होने के कारण मित्रों से भी दूर हो जाता है। वह अपने ही बनाये नियम भी तोड़ देता है।
उसके कार्यों में अक्सर बाधाएं आती हैं। अधिकतर समय का सदुपयोग नहीं कर पाता है। इधर उधर के कार्यों में समय व्यर्थ करता है। अपनी बुद्धि का प्रयोग नहीं करके परामर्शों पर काम करता है और दुख उठाता है।
कृत्रिम मंगल का उपाय
जातक बुधवार के दिन किसी हनुमान मंदिर में तुलसी की माला लगातार 7 बुधवार करे। लाभ होगा।
शेष जैसी भगवती की इच्छा
यहां दिया गया प्रयोग निरापद है, लेकिन फिर भी अपनी कुंडली किसी योग्य ब्राह्मण को दिखाकर ही कोई उपाय या प्रयोग करना चाहिये।
गुरु इच्छा बलीयसि…
-पं. चंद्रशेखर शास्त्री
पीताम्बरा विद्यापीठ सीकरीतीर्थ

बुध केतु

सू कुछ प्रथाओं को लेकर जनमानस के मन मे ऐसा मतिभ्रम उत्पन्न कर दिया गया है कि, विधर्मियो के सवाल पे वो जानकारी न होने पे चुप्पी साध जाते है,और हिंदुत्व को लेकर उनके मन मे एक कुंठा व्यापत हो जाती है ऐसी ही एक प्रथा है , —–देवदासी प्रथा —–
माना जाता है कि ये प्रथा छठी सदी में शुरू हुई थी। इस प्रथा के तहत कुंवारी लड़कियों को धर्म के नाम पर ईश्वर के साथ ब्याह कराकर मंदिरों को दान कर दिया जाता था। माता-पिता अपनी बेटी का विवाह देवता या मंदिर के साथ कर देते थे। परिवारों द्वारा कोई मुराद पूरी होने के बाद ऐसा किया जाता था। देवता से ब्याही इन महिलाओं को ही देवदासी कहा जाता है। उन्हें जीवनभर इसी तरह रहना पड़ता था। मत्स्य पुराण, विष्णु पुराण तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी देवदासी का उल्लेख मिलता है। देवदासी यानी ‘सर्वेंट ऑफ़ गॉड’। देवदासियां मंदिरों की देख-रेख, पूजा-पाठ की तैयारी, मंदिरों में नृत्य आदि के लिए थीं। कालिदास के ‘मेघदूतम्’ में मंदिरों में नृत्य करने वाली आजीवन कुंवारी कन्याओं की चर्चा की है। संभवत: इन्हें देवदासियां ही माना जाता है।
देवदासी प्रथा का सच –
ऐसा माना जाता रहा है कि ये प्रथा व्यभिचार का कारण बन गयी, और मंदिर के पुजारी इन देवदासियों का शोषण करते थे, और सिर्फ वही नही अन्य लोग जो विशेष अतिथि होते थे या मंदिर से जुड़े होते थे वो भी इन् देवदासियों का शारीरिक शोषण करते थे ।
लेकिन ऐसा नही है ,कैसे और क्यों आइये आपको अवगत कराते हैं —
देवदासियों का मुख्य कार्य था मंदिर की साफ सफाई ,उसका रख रखाव दीप प्रज्वलन,पवित्र ढंग से रहते हुए मंदिर के सभी कर्म करना । इनका वर्गीकरण होता था और प्राचीन हिन्दू वैदिक शास्त्रों के अनुसार इन्हें 7 वर्ग में विभाजित किया गया है —
1- दत्ता – जो मंदिर में भक्ति हेतु स्वतः अर्पित हो जाती थी ।इन्हें देवी का दर्जा दिया जाता था ,और इन्हें मंदिर के सभी मुख्य कर्म करने की अनुमति होती थी।।
2- विक्रिता – जो खुद को सेवा के लिए मंदिर प्रशासन को बेच देता था ,इन्हें सेवा के लिए लिया जाता था अतः इनका काम साफ सफाई आदि का होता था । ये पूजनीय नही होते थे ये बस मंदिर के श्रमिक होते थे ।।
3- भृत्या – जो खुद के परिवार के भरण पोषण के लिए मंदिर में दासी का कार्य करते थे । इनका कार्य नृत्य आदि करके अपना पालन पोषण करना होता था ।।
4- भक्ता – जो सेवा भाव मे पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए भी मंदिर में देवदासी का कार्य करती थी । ये मंदिर के समस्त कर्मो को करने के लिए होती थी ।।
5- हृता – जिनका दूसरे राज्यो से हरण करके मंदिर को दान कर दिया जाता था । इनको मंदिर प्रशासन अपनी सुविधा अनुसार कर्म कराता था इनकी गणना थी तो देवदासियों में परंतु वास्तव में ये गुलाम थे ।।
6- अलंकारा – राजा और प्रभावशाली लोग जिन कन्याओ को इसके योग्य समझते थे उसे मंदिर प्रशासन को देवदासी बना कर दे देते थे । ये उन राजाओं और प्रभावशाली व्यक्तिओ का मंदिर को दिया गया उपहार होती थी।।
7-नागरी – ये मुख्यतः विधवाओ , वैश्याओ और दोषी होते थे जो मंदिर की शरण मे आ जाते थे । जिन्हें बस मंदिर से भोजन और आश्रय की जरूरत थी बदले में ये मंदिर प्रशासन का दिया कोई भी कार्य कर देते थे ।।
मुख्यतः दत्ता ,भक्ता और अलंकारा ही मंदिर की देवदासियां होती थी जबकि नागरी, हृता,बिक्रीता और भृत्या अपने स्वार्थ के लिए मंदिर से जुड़ती थी और जहाँ मुख्य देवदासियो को श्रद्धा और भक्ति से देखा जाता था वही इन चारों को हेय दृष्टि से ।
मुख्य देवदासियां (दत्ता, भक्ता,अलंकारा) को खाने आदि की कमी नही होती थी तो इन्हें कोई गलत कर्म नही करना पड़ता था जबकि गौड़ देवदासियो को अपने जीवन यापन के लिए अन्य कर्म भी करने पड़ते थे जिसमें गलत कर्म(वेश्यावृत्ति) भी थे ।।
गौड़ देवदासियो के इन्ही व्यवहार को प्रचारित किया गया और ये कहा गया कि सभी देवदासियो का शोषण होता है जिसका मंदिर प्रशासन ये पुजारी फायदा उठाते है जबकी ये गौड़ दासियों द्वारा स्वार्थ के लिए मजबूरी किया जाता था ।।
कही कही उल्लेख मिलता है कि राजा इन देवदासियो का इस्तेमाल दूसरे राज्य के राजाओं की हत्या में भी इतेमाल करते थे । ये कर्म हृता द्वारा किया जाता था(कौटिल्य अर्थशास्त्र)
मुगलकाल में ज्यादातर लोग अपनी कन्याओ को मंदिर में दान करने लगे और जब राजाओं ने महसूस किया कि इतनी संख्या में देवदासियों का पालन-पोषण करना उनके वश में नहीं है, तो देवदासियां सार्वजनिक संपत्ति बन गयी (मुख्य तीनो को छोड़कर) जिन्हें अपने पालन पोषण के लिए वैश्यावृत्ति तक करनी पड़ी। और यही प्रचारित और प्रसारित किया गया
विशेष – अक्सर आपने कथित दलित मसीहाओ को ये कहते हुए सुना होगा कि, देवदासी प्रथा में दलितों का शोषण होता आया है ।उनकी जानकारी के लिए बता दु की देवदासी प्रथा के अंतर्गत ऊंची जाति की महिलाएं ही मंदिर में खुद को समर्पित करके देवता की सेवा करती थीं।
इसमे दलितों के शोषण की बात भ्रामक है ।
फिलहाल ये प्रथाएं बंद हो चुकी है मैं इन प्रथाओं का विरोध करता हूँ , इन प्रथाओं की आड़ में किसी के धर्म का मजाक उड़ाना(जबकि इसकी सत्यता तक आपको नही पता) कहाँ तक उचित है।
Sources – Parker, M. Kunal. July, 1998. “A Corporation of Superior Prostitutes’ Anglo- Indian Legal Conceptions of Temple Dancing Girls, 1800- 1914.”. Modern Asian Studies. Vol. 32. No. 3. p. 559.
2. Saskia C. Kersenboom- Story. 1987. . Nityasumangali. Delhi: Motilal Banarsidas. p. XV.
3. Tarachand, K.C. 1991. Devadasi Custom: Rural Social Structure and Flesh Markets. New Delhi: Reliance Publishing House. p. 1.
4. Ibid.,
5. Singh, A.K. 1990. Devadasis System in Ancient India. Delhi: H.K. Publishers and Distributors. p. 13.
6. Orr, Leslie. C. 2000. Donors, Devotees and Daughters of God: Temple Women in Medieval Tamilnadu. Oxford: Oxford University Press. p. 5.
7. Farquhar, J.N. 1914 (Rpt. 1967). Modern Religious Movements in India. New Delhi: Munshiram Manoharlal. pp. 408- 409.
8. Thurston, Edgar and K, Rangachari. 1987 (Rpt. 1909). Castes and Tribes of Southern India. Vol. II- C to J. New Delhi: Asian Educational Services. pp. 125- 126.